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3..13..1 | | श्रीशुक उवाच निशम्य वाचं वदतो मुनेः पुण्यतमां नृप भूयः पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथादृतः |
3..13..2 | | विदुर उवाच स वै स्वायम्भुवः सम्राट्प्रियः पुत्रः स्वयम्भुवः प्रतिलभ्य प्रियां पत्नीं किं चकार ततो मुने |
3..13..3 | | चरितं तस्य राजर्षेरादिराजस्य सत्तम ब्रूहि मे श्रद्दधानाय विष्वक्सेनाश्रयो ह्यसौ |
3..13..4 | | श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् |
3..13..5 | | श्रीशुक उवाच इति ब्रुवाणं विदुरं विनीतं सहस्रशीर्ष्णश्चरणोपधानम् प्रहृष्टरोमा भगवत्कथायां प्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट |
3..13..6 | | मैत्रेय उवाच यदा स्वभार्यया सार्धं जातः स्वायम्भुवो मनुः प्राञ्जलिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भमभाषत |
3..13..7 | | त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृद्वृत्तिदः पिता तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत् |
3..13..8 | | तद्विधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु यत्कृत्वेह यशो विष्वगमुत्र च भवेद्गतिः |
3..13..9 | | ब्रह्मोवाच प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम् |
3..13..10 | | एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्यपचितिर्गुरौ शक्त्याप्रमत्तैर्गृह्येत सादरं गतमत्सरैः |
3..13..11 | | स त्वमस्यामपत्यानि सदृशान्यात्मनो गुणैः उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञैः पुरुषं यज |
3..13..12 | | परं शुश्रूषणं मह्यं स्यात्प्रजारक्षया नृप भगवांस्ते प्रजाभर्तुर्हृषीकेशोऽनुतुष्यति |
3..13..13 | | येषां न तुष्टो भगवान्यज्ञलिङ्गो जनार्दनः तेषां श्रमो ह्यपार्थाय यदात्मा नादृतः स्वयम् |
3..13..14 | | मनुरुवाच आदेशेऽहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो |
3..13..15 | | यदोकः सर्वभूतानां मही मग्ना महाम्भसि अस्या उद्धरणे यत्नो देव देव्या विधीयताम् |
3..13..16 | | मैत्रेय उवाच परमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम् कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् |
3..13..17 | | सृजतो मे क्षितिर्वार्भिः प्लाव्यमाना रसां गता अथात्र किमनुष्ठेयमस्माभिः सर्गयोजितैः यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे |
3..13..18 | | इत्यभिध्यायतो नासा विवरात्सहसानघ वराहतोको निरगादङ्गुष्ठपरिमाणकः |
3..13..19 | | तस्याभिपश्यतः खस्थः क्षणेन किल भारत गजमात्रः प्रववृधे तदद्भुतमभून्महत् |
3..13..20 | | मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः कुमारैर्मनुना सह दृष्ट्वा तत्सौकरं रूपं तर्कयामास चित्रधा |
3..13..21 | | किमेतत्सूकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम् अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् |
3..13..22 | | दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः क्षणाद्गण्डशिलासमः अपि स्विद्भगवानेष यज्ञो मे खेदयन्मनः |
3..13..23 | | इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह सूनुभिः भगवान्यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभः |
3..13..24 | | ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्च द्विजोत्तमान् स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभुः |
3..13..25 | | निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते त्रिभिः पवित्रैर्मुनयोऽगृणन्स्म |
3..13..26 | | तेषां सतां वेदवितानमूर्तिर्ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् विनद्य भूयो विबुधोदयाय गजेन्द्रलीलो जलमाविवेश |
3..13..27 | | उत्क्षिप्तवालः खचरः कठोरः सटा विधुन्वन्खररोमशत्वक् खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षा ज्योतिर्बभासे भगवान्महीध्रः |
3..13..28 | | घ्राणेन पृथ्व्याः पदवीं विजिघ्रन्क्रोडापदेशः स्वयमध्वराङ्गः करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्यामुद्वीक्ष्य विप्रान्गृणतोऽविशत्कम् |
3..13..29 | | स वज्रकूटाङ्गनिपातवेग विशीर्णकुक्षिः स्तनयन्नुदन्वान् उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्तश्चुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति |
3..13..30 | | खुरैः क्षुरप्रैर्दरयंस्तदाप उत्पारपारं त्रिपरू रसायाम् ददर्श गां तत्र सुषुप्सुरग्रे यां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त |
3..13..31 | | स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नां स उत्थितः संरुरुचे रसायाः तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तं सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः |
3..13..32 | | जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं स लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि तद्रक्तपङ्काङ्कितगण्डतुण्डो यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् |
3..13..33 | | तमालनीलं सितदन्तकोट्या क्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैर्विरिञ्चिमुख्या उपतस्थुरीशम् |
3..13..34 | | ऋषय ऊचुः जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः यद्रोमगर्तेषु निलिल्युरद्धयस्तस्मै नमः कारणसूकराय ते |
3..13..35 | | रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोमस्वाज्यं दृशि त्वङ्घ्रिषु चातुर्होत्रम् |
3..13..36 | | स्रक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोरिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् |
3..13..37 | | दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः सत्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते |
3..13..38 | | सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः संस्थाविभेदास्तव देव धातवः सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धिस्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः |
3..13..39 | | नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवता द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः |
3..13..40 | | दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूः सभूधरा यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी |
3..13..41 | | त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः |
3..13..42 | | संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता विधेम चास्यै नमसा सह त्वया यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः |
3..13..43 | | कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् |
3..13..44 | | विधुन्वता वेदमयं निजं वपुर्जनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् सटाशिखोद्धूतशिवाम्बुबिन्दुभिर्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः |
3..13..45 | | स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैषते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः यद्योगमायागुणयोगमोहितं विश्वं समस्तं भगवन्विधेहि शम् |
3..13..46 | | मैत्रेय उवाच इत्युपस्थीयमानोऽसौ मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् |
3..13..47 | | स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः रसाया लीलयोन्नीतामप्सु न्यस्य ययौ हरिः |
3..13..48 | | य एवमेतां हरिमेधसो हरेः कथां सुभद्रां कथनीयमायिनः शृण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतीं जनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति |
3..13..49 | | तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् |
3..13..50 | | को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहामहो विरज्येत विना नरेतरम् |
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